महाराजा अग्रसेन समाजवादी व्यवस्था के महासूर्य
कुशल शासकों की कीर्ति किसी एक युग तक सीमित नहीं रहती। उनकालोकहितकारी चिन्तन कालजयी होता है और युग–युगों तक समाज कामार्गदर्शन करता है। ऐसे शासकों से न केवल जनता बल्कि सभ्यता औरसंस्कृति भी समृद्ध और शक्तिशाली बनती है। ऐसे शासकों की दृष्टि मेंसर्वोपरि हित सत्ता का न होकर समाज एवं मानवता होता है। ऐसे ही महान्शासक थे महाराजा अग्रसेन। वे कर्मयोगी लोकनायक तो थे ही, संतुलित एवंआदर्श समाजवादी व्यवस्था के निर्माता भी थे। वे समाजवाद के प्रणेता, गणतंत्र के संस्थापक, अहिंसा के पुजारी व शांति के दूत थे। सचमुच उनकायुग रामराज्य की एक साकार संरचना था जिसमें उन्होंने अपने आदर्श जीवनकर्म से, सकल मानव समाज को महानता का जीवन–पथ दर्शाया। उस युग मेंन लोग बुरे थे, न विचार बुरे थे और न कर्म बुरे थे। राजा और प्रजा के बीचविश्वास जुड़ा था। वे एक प्रकाश स्तंभ थे, अपने समय के सूर्य थे जिनकीजन्म जयन्ती हर वर्ष 1 अक्टूबर को मनाई जा रही है।
महाराजा अग्रसेन अग्रवाल जाति के पितामह थे। धार्मिक मान्यतानुसारइनका जन्म अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को मर्यादा पुरुषोतम भगवान श्रीराम कीचैंतीसवी पीढ़ी में सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल के प्रतापनगर के महाराजा वल्लभ सेनके घर में द्वापर के अन्तिमकाल और कलियुग के प्रारम्भ में आज से लगभग5187 वर्ष पूर्व हुआ था। वर्तमान में राजस्थान व हरियाणा राज्य के बीचसरस्वती नदी के किनारे प्रतापनगर स्थित था। राजा वल्लभ के अग्रसेन औरशूरसेन नामक दो पुत्र हुये। अग्रसेन महाराज वल्लभ के ज्येष्ठ पुत्र थे।महाराजा अग्रसेन के जन्म के समय गर्ग ऋषि ने महाराज वल्लभ से कहा था, कि यह बहुत बड़ा राजा बनेगा। इसके राज्य में एक नई शासन व्यवस्था उदयहोगी और हजारों वर्ष बाद भी इनका नाम अमर होगा।
महाराजा अग्रसेन को समाजवाद का अग्रदूत कहा जाता है। अपने क्षेत्र मेंसच्चे समाजवाद की स्थापना हेतु उन्होंने नियम बनाया कि उनके नगर में बाहरसे आकर बसने वाले व्यक्ति की सहायता के लिए नगर का प्रत्येक निवासीउसे एक रुपया व एक ईंट देगा, जिससे आसानी से उसके लिए निवास स्थानव व्यापार का प्रबंध हो जाए। महाराजा अग्रसेन ने एक नयी व्यवस्था कोजन्म दिया, उन्होंने पुनः वैदिक सनातन आर्य संस्कृति की मूल मान्यताओं कोलागू कर राज्य की पुनर्गठन में कृषि–व्यापार, उद्योग, गौपालन के विकास केसाथ–साथ नैतिक मूल्यों की पुनः प्रतिष्ठा का बीड़ा उठाया।
महाराज अग्रसेन ने 108 वर्षों तक राज किया। महाराज अग्रसेन ने एक ओरहिन्दू धर्म ग्रंथों में वैश्य वर्ण के लिए निर्देशित कर्म क्षेत्र को स्वीकार कियाऔर दूसरी ओर देशकाल के परिप्रेक्ष्य में नए आदर्श स्थापित किए। उनकेजीवन के मूल रूप से तीन आदर्श हैं– लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था, आर्थिकसमरूपता एवं सामाजिक समानता। एक निश्चित आयु प्राप्त करने के बादकुलदेवी महालक्ष्मी से परामर्श पर वे आग्रेय गणराज्य का शासन अपने ज्येष्ठपुत्र के हाथों में सौंपकर तपस्या करने चले गए। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र तथाजगत की उन्नति मूल रूप से जिन चार स्तंभों पर निर्भर होती हैं, वे हैं– आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व सामाजिक। अग्रसेनजी का जीवन–दर्शनचारों स्तंभों को दृढ़ करके उन्नत विश्व के नवनिर्माण का आधार बना है।लेकिन इसे समय की विडम्बना ही कहा जायेगा कि अगणित विशेषताओं सेसंपन्न, परम पवित्र, परिपूर्ण, परिशुद्ध, मानव की लोक कल्याणकारी आभासे युक्त महामानव महाराज अग्रसेन की महिमा से अनभिज्ञ अतीत से वर्तमानतक के कालखण्ड ने उन्हें एक समाज विशेष का कुलपुरुष घोषित कर उनकेस्वर्णिम इतिहास कोे हाशिए पर डाल दिया है। वर्तमान में भी उनके वंशजोंकी बड़ी तादाद होने और राष्ट्र के निर्माण में उनका सर्वाधिक योगदान होने केबावजूद न तो उस महान् शासक को और न ही उनके वंशजों को सम्मानपूर्णप्रतिष्ठा प्राप्त हो पा रही है।
अग्रसेनजी सूर्यवंश में जन्मे। महाभारत के युद्ध के समय वे पन्द्रह वर्ष के थे।युद्ध हेतु सभी मित्र राजाओं को दूतों द्वारा निमंत्रण भेजे गए थे। पांडव दूत नेवृहत्सेन की महाराज पांडु से मित्रता को स्मृत कराते हुए राजा वल्लभसेन सेअपनी सेना सहित युद्ध में सम्मिलित होने का निमंत्रण दिया था। महाभारत केइस युद्ध में महाराज वल्लभसेन अपने पुत्र अग्रसेन तथा सेना के साथ पांडवोंके पक्ष में लड़ते हुए युद्ध के 10वें दिन भीष्म पितामह के बाणों से बिंधकरवीरगति को प्राप्त हो गए थे। इसके पश्चात अग्रसेनजी ने ही शासन कीबागडोर संभाली। उन्होंने बचपन से ही वेद, शास्त्र, अस्त्र–शस्त्र, राजनीति औरअर्थ नीति आदि का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। उनका विवाह नागों के राजाकुमुद की पुत्री माधवी से हुआ।
महाराजा अग्रसेन ने ही अग्रोहा राज्य की स्थापना की थी। उन्होंनेकुशलतापूर्वक राज्य का संचालन करते हुए विस्तार किया तथा प्रजा हित मेंकाम किए। वे धार्मिक प्रवृत्ति के पुरुष थे। धर्म में उनकी गहरी रुचि थी औरवह साधना में विश्वास करते थे इसलिए उन्होंने अपने जीवन में कई बारकुलदेवी लक्ष्मीजी से यह वरदान प्राप्त किया कि जब तक उनके कुल मेंलक्ष्मीजी की उपासना होती रहेगी, तब तक अग्रकुल धन व वैभव से सम्पन्नरहेगा। उनके 18 पुत्र हुए, जिनसे 18 गोत्र चले। गोत्रों के नाम गुरुओं के गोत्रोंपर रखे गए।
महाराज अग्रसेन ने समाजवादी शासन व्यवस्था की स्थापना की, जिसमेंकिसी भी व्यक्ति की कोई आर्थिक हानि होती तो वह राजा से ऋण ले सकताथा। सम्पन्न होने पर वापस दे देता था। महाराजा अग्रसेन ने 18 यज्ञ किएक्योंकि ब्राह्मण लोग अति संतोषी, यजमान के सिवाय दूसरे का दान न लेनेवाले होते थे। यज्ञों द्वारा उनकी धन आदि की इच्छा पूरी हो जाती थी। हरव्यक्ति भगवान के नाम पर अपने राज्य और धार्मिक कार्यों के लिए अपनीआमदनी का दसवां भाग निकालता था। राज्य का हर व्यक्ति अपनीआजीविका अन्य साधनों या किसी व्यापार द्वारा करते थे परन्तु राष्ट्र परविपत्ति आने के समय सब वर्ग के लोग हथियारों से युद्ध को तैयार हो जातेथे। समाज व्यववस्था उनके लिए कर्तव्य थी, इसलिए कर्तव्य से कभीपलायन नहीं किया तो धर्म उनकी आत्मनिष्ठा बना, इसलिए उसे कभी नकारानहीं। महाराजा अग्रसेनजी की इसी विचारधारा का ही प्रभाव है कि आज भीअग्रवाल समाज शाकाहारी, अहिंसक एवं धर्मपरायण के रूप में प्रतिष्ठित है।उस समय यज्ञ करना समृद्धि, वैभव और खुशहाली की निशानी माना जाताथा। महाराज अग्रसेन ने बहुत सारे यज्ञ किए। एक बार यज्ञ में बली के लिएलाए गये घोड़े को बहुत बेचैन और डरा हुआ पा उन्हें विचार आया कि ऐसीसमृद्धि का क्या फायदा जो मूक पशुओं के खून से सराबोर हो। उसी समयउन्होंने पशु बली पर रोक लगा दी। इसीलिए आज भी अग्रवंश समाज हिंसासे दूर ही रहता है। उनकी दण्डनीति और न्यायनीति आज प्रेरणा है उससंवेदनशून्य व्यक्ति और समाज के लिए जो अपराधीकरण एवं हिंसकप्रवृत्तियों की चरम सीमा पर खड़ा है। व्यक्तित्व बदलाव का प्रशिक्षणअग्रसेनजी की बुनियादी शिक्षा थी। आज की शासन–व्यवस्थाएं अग्रसेनजीकी शिक्षाओं को अपनाकर उन्नत समाज का निर्माण कर सकती है।
अग्रसेनजी ने राजनीति का सुरक्षा कवच धर्मनीति को माना। राजनेता के पासशस्त्र है, शक्ति है, सत्ता है, सेना है फिर भी नैतिक बल के अभाव में जीवनमूल्यों के योगक्षेम में वे असफल होते हैं। इसीलिये उन्होंने धर्म को जीवन कीसर्वोपरि प्राथमिकता के रूप में प्रतिष्ठापित किया। इसी से नये युग कानिर्माण, नये युग का विकास वे कर सके। उनके युग का हर दिन पुरातन केपरिष्कार और नए के सृजन में लगा था। सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों केनए संदर्भ जुड़े। परम्परा प्रतिष्ठित हुई। रीति–रिवाजों का स्वरूप सामनेआया। सबको काम, अर्थ, धर्म, मोक्ष की पुरुषार्थ चतुष्टयी की सार्थकतादिखलाई।
महाराज अग्रसेन के राज की वैभवता से उनके पड़ोसी राजा बहुत जलते थे।इसलिये वे बार–बार अग्रोहा पर आक्रमण करते रहते थे। बार–बार हार केबावजूद वे अग्रोहा पर आक्रमण करते रहे, जिससे राज्य की जनता में तनावबना ही रहता था। इन युद्धों के कारण अग्रसेनजी के प्रजा की भलाई केकामों में विघ्न पड़ता रहता था। लोग भी भयभीत और रोज–रोज की लडाई सेत्रस्त हो गये थे। एक बार अग्रोहा में बड़ी भीषण आग लगी। उस पर किसी भीतरह काबू ना पाया जा सका। उस अग्निकांड से हजारों लोग बेघरबार हो गयेऔर जीविका की तलाश में भारत के विभिन्न प्रदेशों में जा बसे। पर उन्होंनेअपनी पहचान नहीं छोडी। वे सब आज भी अग्रवाल ही कहलवाना पसंदकरते हैं और उसी 18 गोत्रों से अपनी पहचान बनाए हुए हैं। आज भी वे सबमहाराज अग्रसेन द्वारा निर्देशित मार्ग का अनुसरण कर समाज की सेवा में लगेहुए हैं। एक सर्वे के अनुसार, देश की कुल इनकम टैक्स का 24 प्रतिशत सेअधिक हिस्सा अग्रसेन के वंशजांे का हैं। कुल सामाजिक एवं धार्मिक दानमें 62 प्रतिशत हिस्सा अग्रवंशियों का है। देश की कुल जनसंख्या का मात्रएक प्रतिशत अग्रवंशज है, लेकिन देश के कुल विकास में उनका 25 प्रतिशतसहयोग रहता है। बावजूद इसके देश की सरकारों ने उस महामानव एवं महान्शासक की स्मृति में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किये हैं, यह देश की सबसेसमृद्ध, बौद्धिक एवं क्रियाशील कौम के प्रति पक्षपात ही कहा जायेगा। कभीकिसी अवसर पर डाक टिकट का जारी हो जाना या किसी विशेष तेल वाहकपोत (जहाज) का नाम महाराजा अग्रसेन रखा जाना बहुत नगण्य कार्य हैं।उस महामानव को राष्ट्र की सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी जब देश की बड़ीजन–कल्याणकारी योजनाएं उस महान शासक के नाम पर हो, किसी एकमहत्वपूर्ण ट्रेन का नाम अग्रसेन एक्सप्रेस रखा जाये। राजधानी दिल्ली सहितविभिन्न राज्यों की राजधानियों में मुख्य मार्गों के नाम भी अग्रसेन मार्ग रखेजाये।
अग्रसेन जयन्ती के अवसर पर अग्र–वंशजों को भी संकल्पित होना है। राष्ट्रीयएवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अग्रवालों ने अपनी पहचान बनायी है उस तस्वीर मेंअब कल्पना के रंग भरने की जरूरत ही कहां है? उसे तो यर्थाथता की जमींदे। अतीत, वर्तमान और भविष्य के कालखण्ड से जुड़ी संस्कृति की समीक्षाकरें और यह देखें कि निर्माण के नए दीए हमने कब और कहां, कितने औरकैसे जलाने हैं ताकि अग्रवंश की दीये से दीया जलाकर रोशनी की परम्पराको सुरक्षित रखा जा सके। अग्रवंशजों को अपने अस्तित्व एवं अस्मिता कोस्वतंत्र पहचान देनी है, देखने में आ रहा है कि वे विखंडित होकर दूसरी–दूसरीपरम्पराओं को समृद्ध बना रहे हैं। स्वयं संगठित होकर ही महाराज अग्रसेन केसपनों को साकार कर सकेंगे और तभी अपनी शक्ति एवं समृद्धि से राष्ट्र केविकास में योगदान दे सकेंगे और यही उस महान् समाज–निर्माता शासक केप्रति हमारी विनम्र श्रद्धांजलि होगी।
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