राष्ट्रीय

२ अक्तूबर को गांधी जयंती के अवसर पर प्रकाशनार्थ गांधी और भारत का देश-काल

गिरीश्वर मिश्र  

मनुष्य की दृढ़ इच्छा शक्ति और उसके लिए समर्पण कितना चमत्कारी परिणाम वाला हो सकता है इसका जीता जागता उदाहरण बने महात्मा गांधी मानवता के लिए कर्म की भाषा लेकर आए थे। अमूर्त भाषा को मूर्त रूप देकर उन्होंने गरीब, अनपढ़, शोषित हर किसी के साथ संवाद को संभव बनाया था। सभी को जोड़ कर राष्ट्रव्यापी अभियान चलाने में उनकी सफलता आश्चर्यकारी थी। उनकी सादगी भरी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष उपस्थिति आसानी से किसी को अपना मुरीद बना लेती थी। उनकी प्रामाणिकता भरोसा दिलाती थी और लोगों के मन के संशय दूर हो जाते थे। वे खुद को किसी वाद का प्रवर्तक नहीं मानते थे, न शिक्षक या गुरु की औपचारिक भूमिका ही कभी अपनाई परंतु  बड़ी भारी संख्या में लोग अपने को गांधीवादी कहलाने में गर्व का अनुभव करने लगे थे। उनकी जीवन शैली, वस्त्र, खानपान और आचरण की आम जनता पर गहरी छाप पड़ी। इसका कारण यह भी था कि गांधी जी का स्वदेशी पर बड़ा ज़ोर था। दूसरे शब्दों में लोगों को उनहोने यह अहसास दिलाया कि जो अपना था, स्थानीय था, देसी था वह किसी भी तरह हेय न हो कर उपादेय था और सात्विक गर्व का विषय था। अंग्रेज़ी ठाटबाट और शनो-शौक़त का रुतबा जहां भेद करने और भारतीयों को नीचा दिखाने वाला था वहीं गांधी जी द्वारा अपने देश के आचार, विचार और वेश-भूषा और भाषा अपनाना और उसका उत्सव मानना जन-जन में आत्मविश्वास भरने वाला साबित हुआ। भारत के नेताओं में विदेश में पढ़ने, रहने और काम करने का जितना लम्बा अनुभव गांधी जी का था उतना बहुत कम लोगों का था। पर गांधी जी  अंग्रेज़ीयत की अच्छी समझ रखने पर भी पर अंग्रेजियत के अनावश्यक असर से मुक्त रहे जब कि बहुतेरों ने अतिरिक्त अंग्रेज़ीयत को लाद लिया। इस अर्थ में गांधी जी अपवाद थे और भारतीयता का उनका स्वर मुखर होता गया। गांधी जी ने भारत को पूरी तरह अंगीकार किया और भारत को अपने हृदय में बसा लिया। उसके साथ इतना तादात्मीकरण कर लिया कि वे भारत के प्रतीक बन गए। आज विश्व में ‘गांधी’ और ‘भारत’ पर्यायवाची के रूप में स्वीकृत और प्रचलित हो चुके हैं। गांधी भारत के थे पर गांधी भारत से इतने एकात्म हो गए कि भारत गांधी का देश हो गया।

एक सामान्य परिवारी आदमी के स्वभाव वाले गांधी का असाधारण सामाजिक व्यक्तित्व वाले गांधी में रूपांतरण दक्षिण अफ्रीका की सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों के बीच हुआ जिनमें उन्होंने अपने विचारों, जीवन की राह चुनने और उस पर चलने का निश्चय किया था। विलक्षण धैर्य के साथ विविध धर्मों और परिस्थितियों से मिलने वाले विभिन्न प्रकार के अनुभवों ने गांधी जी के लिए एक समाजकेन्द्रित नेतृत्व की राह बनाई जिसने समाज को साथ ले चलने के लिए गुंजाइश पैदा की।  गांधी ने विचार पूर्वक बहुतेरे प्रलोभनों की उपेक्षा करते तमाम विघ्न बाधाओं के बावजूद, मानवीय मूल्यों के पक्ष में फ़ैसले लेते रहे और उन पर टिके रहे। सन 1909 में इंग्लैण्ड से दक्षिण अफ्रीका जाते हुए पानी की जहाज पर गांधी जी ने ‘हिन्द स्वराज’ नामक पुस्तिका मातृभाषा गुजराती में लिखी। इसमें पश्चिम की सभ्यता को जाँचते हुए उसे मानवीय आधार पर चुनौती दी और साथ ही भारत के लिए ‘स्वराज’ की संकल्पना प्रस्तुत की। मनुष्य की मूलभूत जरूरतों और आत्मिक विकास की कसौटी पश्चिम की सभ्यता को एक शैतानी सभ्यता के रूप में प्रतिपादित किया गया। गांधी जी ने भारत को अपनी सभ्यता, भाषा, अर्थ-व्यवस्था, संस्कृति और शिक्षा आदि की आवश्यकता की पहचान की और उसके पक्ष में अंग्रेजी शासन के विकल्प की एक व्यवस्था का प्रस्ताव किया। अंग्रेजी राज से मुक्ति और स्वराज (आत्म-नियंत्रण) की भावना स्वाधीनता संग्राम का मूल मंत्र हो गया।

श्रीलंका के शासन और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को लेकर भारत की चिंता

 

स्मरणीय है कि भारत में आने के पहले गांधी जी के भारत-प्रेम की प्रसिद्धि देश में पहुँच चुकी थी। उनके सत्याग्रह, उपवास, सरल जीवन-शैली और राजनीतिक सूझबूझ  की पहल को लेकर देश में चारों ओर लोगों में बड़ा उत्सुकता और उत्साह था। भारत आकर उन्होंने 1915 में कोचरब में पहला आश्रम स्थापित किया, फिर 1917 में साबरमती नदी के किनारे आश्रम बना। मोतिहारी, बिहार में निलहे किसानों की अंग्रेजों द्वारा शोषण के विरुद्ध भारत में पहला सत्याग्रह अत्यंत पिछड़े ग्रामीण क्षेत्र में किया और अंग्रजी सरकार को झुकना पड़ा। गांधी जी के राजनैतिक कार्य में सामाजिक सरोकार और नैतिक आधार प्रमुख थे। उम्र के सातवें दशक में पहुँच रहे गांधी जी ने महाराष्ट्र में ग्रामीण इलाके के वर्धा को चुना और गाँव के साधारण किसान की स्थिति सुधारने के लिए कई कार्यक्रम शुरू किए। उनका दृढ़ विश्वास था कि स्वतंत्रता का अर्थ सिर्फ़ राजनैतिक सत्ता-परिवर्तन न हो कर पूरे भारतीय समाज की सर्वतोमुखी उन्नति या सर्वोदय था। लोक संग्रह को वे व्यावहारिक स्तर पर पुनर्परिभाषित कर रहे थे। उनके  आश्रम के लक्ष्य इसे और स्पष्ट करते हैं: बिना घृणा के मातृभूमि की सेवा, दूसरों को दुःख दिए बिना अध्यात्म का विकास, साधन और साध्य की पवित्रता तथा आत्म-निर्भरता। सन 1936 में हिन्दी भाषा को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति गठित की जो तब से सक्रिय है। गांधी जी  ने ‘नई तालीम’ का प्रस्ताव किया जिसमें ह्रदय, मस्तिष्क और हाथ तीनों के उपयोग पर बल दिया । गांधी जी के विचार और जीवन शैली ने सबने बहुतों को मुरीद बना लिया। घर-घर चरखा, खादी और स्वतंत्रता भूख जगाने का जो काम गांधी के शब्दों ने किया उसका कोई मुकाबला नहीं कर सकता। गांधी की सरलता सबको भा जाती थी और जन भागीदारी की उनकी तरकीबें समावेशी थी। वे व्यक्ति के कल्याण को सर्व के कल्याण में निहित  मान  कर चल रहे थे। उनके लिए श्रम अच्छे जीवन का आधार  था। उन्होंने  सिद्धांतविहीन राजनीति, श्रम बिना धन, नैतिकता विना व्यापार, चरित्र बिना शिक्षा , विवेक बिना सुख , मानवता बिना विज्ञान, तथा त्याग बिना पूजा को सामाजिक पाप कहा और इनसे बचने के लिए आगाह किया।

स्वाधीन भारत ने अपनी उन्नति के लिए जो राह चुनी उसमें गांधी विचार जीवन की मुख्य धारा से अलग हाशिए पर जाते रहे।  वे इतिहास का हिस्सा तो हैं परन्तु व्यवहार में अपनाना मुश्किल हो रहा है। स्मृति के एक कोने में वे पड़े हुए हैं । उनको संजोने और सजाने का काम गाहें बगाहे ज़रूर हुआ पर आचरण से वे गायब होने लगे। झूठ, फ़रेब, धोखा, क्रोध, ठगी, अनैतिकता आदि बाजार-प्रधान जीवन में बढ़ रहे हैं। सम्पन्न लोगों की संख्या  में जरूर इज़ाफ़ा हुआ है पर अभी भी बड़ी संख्या में गरीब, कमजोर और अंतिम जन बाने हुए हैं। गांधी से हम दूर जा रहे हैं। आज जब अपने-अपने सत्य को असली और बड़ा सत्य साबित करने के लिए लोग किसी भी स्तर तक हिंसा करने पर आमादा हो रहे हैं महात्मा गांधी सांत्वना देते लगते हैं । वे सत्य को अस्तित्व और ईश्वर से जोड़ते हुए यह लगातार दिखाने की कोशिश करते रहे कि अहिंसा अस्तित्व की रक्षा के लिए है इसलिए सत्य के पक्ष में है। दूसरे शब्दों में जो सत्य को मानेगा, उसका आदर करेगा वह कभी भी हिंसा की ओर नहीं जाएगा क्योंकि हिंसा अस्तित्व को नष्ट करने वाली है। हिंसा की चपेट में आकर अस्तित्व पर संकट के बादल छाते जा रहे हैं। स्थानीय से लेकर वैश्विक स्तर तक यही कथा दुहराई जा रही है।

 महात्मा गांधी वर्तमान संदर्भ में अधिकाधिक प्रासंगिक होते जा रहे हैं जिसमें  हिंसा, लोभ और तकनीकी को लेकर प्रतिस्पर्धा मानव स्वभाव के बारे में विश्वास को खंडित करने  वाली होती जा रही है। इस बारे सोचते हुए गांधी के निकट जा कर उनकी सोच और क्रियाशीलता के ताने-बाने को समझने की विशेष जरूरत है। गांधी जी की विशिष्टता यह है कि वे  मनुष्य की सहज स्वाभाविक कमजोरियों के बीच उनसे उबरने और ऊपर उठने की लगातार कोशिश करते रहे और बिना किसी दुराव छिपाव के उसे सार्वजनिक भी करते रहे। ऐसा करते हुए  वे देश , समाज और मानवता के प्रमुख पक्षकार बन गए। उनके सैद्धांतिक विचार, स्पष्ट उद्गार, कर्मठता, अनुशासन प्रियता और रचनात्मक कार्यक्रम ने उन्हें एक अनोखा व्यक्तित्व रच दिया, जैसा आगे पीछे दूर दूर तक नहीं  दिखता। आज जब बर्बरता समेत हर किस्म की अतियां बुलंदी पर पहुँच रही हैं गांधी ऐसे दुर्निवार विस्मय के रूप में उपस्थित होते हैं जो तेजरफ्तार दौड़ती-भागती आज की दुनिया को सुनने-गुनने के लिए आवाज देते हैं, टोकते हैं और लगता है कि इस मानवी दुनिया का भविष्य गांधी के आसपास ही है।  

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