अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के बाद फ़ैज़ाबाद लोकसभा सीट से बीजेपी को हरा देने वाले 79 वर्षीय दलित नेता अवधेश प्रसाद की चर्चा हर तरफ़ हो रही है.

अयोध्या के बाहर, अधिकतर लोग फ़ैज़ाबाद सीट पर बीजेपी की अप्रत्याशित हार से हैरान हैं.

लेकिन मिल्कीपुर से वर्तमान विधायक अवधेश प्रसाद की राजनीति को क़रीब से देखने वाले अंदाजा लगा रहे थे कि इस बार अयोध्या में राजनीतिक उलटफेर हो सकता है.

अयोध्या में बहुत से लोग मानते हैं कि बीजेपी प्रत्याशी लल्लू सिंह की उदासीनता और स्थानीय मुद्दों की अनदेखी बीजेपी की हार की बड़ी वजह है.

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नौ बार विधायक, छह बार मंत्री

नौ बार विधायक और छह बार राज्य सरकार में मंत्री रहे अवधेश प्रसाद राजनीति में अचानक नहीं आए थे. ये उनका सोचा समझा क़दम था.

अपने बचपन का एक क़िस्सा सुनाते हुए अवधेश प्रसाद कहते हैं, “दसवीं पास करने के बाद हम एक सांसद के पास अपनी फ़ीस माफ़ करवाने के लिए हस्ताक्षर करवाने गए थे. उन सांसद जी का व्यवहार अपमानजनक था.”

अवधेश प्रसाद कहते हैं, “मैं युवा था, बहुत अपमानित और क्रोधित महसूस किया. मैं वहीं बैठा और एक काग़ज़ पर लिखा- अवधेश प्रसाद- एलएलबी, एडवोकेट, विधायक, सांसद- गृह मंत्री. मैंने उस दिन अपने लिए तय किए सभी लक्ष्य हासिल कर लिए हैं. बस एक रह गया है.”

31 जुलाई, 1945 को सुरवारी गांव के एक साधारण किसान परिवार में पैदा हुए अवधेश प्रसाद ने लखनऊ यूनिवर्सिटी से एलएलबी किया और कानपुर के डीएवी कॉलेज से एमए की डिग्री ली.

अवधेस प्रसाद ने बीए, एमए करने के बाद 1968 में क़ानून की डिग्री पूरी की.

राजनीतिक सफ़र

अवधेश प्रसाद कहते हैं, “एलएलबी का आख़िरी पेपर देने के बाद मैं सीधे फ़ैज़ाबाद कचहरी पहुंचा था. वहां सरकार बनाम साहब का एक केस मेरे पास आया. मैंने मुवक्किल से कहा कि अभी मुझे डिग्री नहीं मिली है, लेकिन उसने ज़िद की की मैं उनकी तरफ़ से मुक़दमा दायर करूं.”

“उस मुवक्किल ने 12 रूपये फ़ीस दी थी. अभी मुझे डिग्री नहीं मिली थी, मैं एक बड़े वकील के पास गया और वो 12 रुपये देकर मुक़दमा फ़ाइल करने के लिए कहा. उन्होंने दो रुपये अपने मुंशी को दिए और दस रुपये मेरे मना करने के बावजूद मुझे लौटा दिए. ये क़ानून की पढ़ाई से मेरी पहली कमाई थी.”अवधेश प्रसाद बताते हैं कि राजनीति में आना उनका लक्ष्य था और पढ़ाई के दौरान ही वह राजनीति में सक्रिय हो गए थे.1968 में उन्होंने वकालत शुरू कर दी थी और इस दौरान वो राजनीतिक रूप से भी सक्रिय थे.उन्होंने पहला चुनाव 1974 में लड़ा और 324 वोट से हार गए. अगले कुछ सालों में देश में आपातकाल लगा.

लोकनायक जय प्रकाश ने आपातकाल के विरोध में आंदोलन खड़ा किया. अवधेश प्रसाद भी इसमें शामिल हो गए.आपातकाल के दौरान देश के बड़े नेताओं को गिरफ़्तार किया गया था. अवधेश प्रसाद भी इस दौरान लखनऊ और फ़ैज़ाबाद की जेल में रहे.आपातकाल में जेल में रहने के दौरान ही अवधेश प्रसाद की मां का निधन हो गया. मां को याद करते हुए उनकी आवाज़ रूंध जाती है.

अवधेश प्रसाद कहते हैं, “चार दिन तक मेरी मां की लाश पड़ी रही लेकिन मैं अंतिम दर्शन के लिए नहीं जा सका. मैं अपने पिता के भी अंतिम दर्शन नहीं कर सका था. अमेठी में संजय गांधी बनाम शरद यादव चुनाव हो रहा था. चौधरी चरण सिंह ने हमें अमेठी में लगा दिया था- कहा था- तुम अपने गांव ना जाना, इस दौरान मेरे पिता का देहांत हुआ. मैं काउंटिंग एजेंट था, तब बैलट पेपर से मतदान होता था, छह-सात दिन तक गिनती चलती थी. काउंटिंग से एक दिन पहले मेरे पिता का निधन हो गया था, लेकिन मैं जा नहीं सका.”

अवधेश प्रसाद कहते हैं कि उन्होंने अपनी राजनीति और वकालत को साथ-साथ जारी रखा.1977 में उन्होंने पहली बार विधायक का चुनाव जीता और आगे चलकर नौ बार विधायक बनें.

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