गिरीश्वर मिश्र

हर संस्कृति अपनी जीवन-यात्रा के पाथेय के रूप में कोई न कोई छवि आधार रूप में गढ़ती है । यह छवि एक ऐसा चेतन आईना बन जाती है जिससे आदमी अपने को पहचानता है और उसी से उसे जो होना चाहता है या हो सकता है उसकी आहट भी मिलती है । इस अर्थ में अतीत , वर्तमान और भविष्य तीनों ही इस अकेली छवि में संपुंजित हो कर आकार पाते हैं । ऐसे ही एक अप्रतिम चरितनायक के रूप में श्रीराम युगों-युगों से भारतीय जनों के मन मस्तिष्क में बैठे हुए हैं । भारतीय मन पर उनका गहरा रंग कुछ ऐसा चढ़ा है कि और सारे रंग फीके पड़ गए । भारतीय चित्त के नवनीत सदृश श्रीराम हज़ारों वर्षों से भारत और  भारतीयता के पर्याय बन चुके हैं। इसका ताज़ा उदाहरण अयोध्या है। यहाँ पर प्रभु के विग्रह को ले कर जन-जन में जो अभूतपूर्व उत्साह उमड़ रहा है वह निश्चय ही उनके प्रति लोक – प्रीति का अद्भुत प्रमाण है । वे ऐसे शिखर पर विराजते हैं कि किसी भी साधक के लिए अवसर बना रहता है । सबका अतिक्रमण करती उनकी मर्यादा हमेशा बीस ही पड़ती है । उनकी उपस्थिति इतिहास के खंडहर या किसी ग्रंथ के पाठ से अधिक लोक जीवन के रोम-रोम में बसी हुई है । श्रीराम एक हैं पर उनके विविध रूप हैं या उन्हें अनेक रूपों में देखा जाता है । आख़िर नाना प्रकार की विचित्र-विचित्र ऋजु कुटिल रुचियों वाले लोगों से भरे समाज के लिए कोई एक रूप पर्याप्त भी तो नहीं हो सकता। इसलिए सगुण और निर्गुण दोनों ही तरह से श्रीराम को आत्मसात् किया जाता है । श्रीराम परब्रह्म है । दूसरी ओर उनकी मानवी भूमिका कोसल्यानंदन की भी है जो अयोध्यानरेश दशरथ के आँगन में किलकारी भरते हैं और बालसुलभ सारी गतिविधियाँ करते हैं । राम के चरित जैसा सहज और चमत्कार दोनों का ऐसा मेल दुर्लभ है । उनकी कथा के मूल को खोजना कठिन ही नहीं असंभव है । जाने कब से वह बार-बार कही सुनी जा रही है और सुनने वाले अपने ढंग से सुनते हैं और फिर दूसरों को सुना कर साझा करते हैं । इसलिए वह अनंत भी है । कथा का विस्तार इतना है कि जीवन में अनुभव किए जा सकने वाले मीठे , कड़वे , तीखे , कसैले सभी रस मृदु से कठोर तक विस्तृत सभी रूप में आस्वादन के लिए उपस्थित रहते हैं । वे भक्त जनसुलभ हैं । उनका भव्य रूप न्यारा है श्यामवर्ण , राजीवनयन , आजानबाहु , तीर-धनुष लिए श्रीराम की दृष्टि में सारी सृष्टि समाई है और वे तत्परता से पापी और आततायी को दंडित कर शांति स्थापित करने के लिए व्यग्र हैं । लोकनायक श्रीराम जन रंजन के लिए समर्पित हैं ।लोक संग्रह उनका धर्म है ।  आस्था , विश्वास और निष्ठा के साथ भक्त उनके स्मरण, भजन और  दर्शन की चाह में डूबते उतराते रहते हैं।

राम की स्मृति को संजोने और अपने अनुभव का सतत रूप से हिस्सा बनाए रखने के लिए लोक-जीवन में न केवल अनेक पर्व, त्योहार, स्नान-ध्यान आयोजित होते रहते हैं बल्कि सामान्य पारस्परिक व्यवहार में भी सभी अवसरों पर याद करते रहते हैं। राम का नाम असंख्य भारतीयों ने अपने नाम के रूप में अपना लिया है। स्थानीय लोकाचार के साथ तरह-तरह के अनुष्ठानों के बीच श्रीविष्णु के मानव अवतार श्रीराम को स्मरण करते हुए असीम ऊर्जा और आनंद का अनुभव करते हैं। भारतीय जीवन में श्री राम श्वास-प्रश्वास की भाँति बसे हुए हैं । श्रीराम की कथा ऐसा आख्यान है जिसके विस्तार में रिश्तों-नातों की वे सारी जटिलताएँ उपस्थित मिलती हैं जो हर पीढी के लोग अनुभव करते रहे हैं। उसमें भावनाओं की दुनिया का ऐसा अकथ विस्तार है जिसमें हर कोई जीवन के पड़ावों पर अनुभव किए जाने वाले मान-अपमान, त्याग-स्वार्थ, ईर्ष्या-द्वेष,आश्वस्ति-आशंका, हर्ष-विषाद, आक्रोश-सौहार्द, प्रेम-घृणा,मैत्री–शत्रुता, धोखा-भरोसा, मोह – शोक,  आदर-तिरस्कार, पाप-पुण्य, आशा-निराशा, विरह-मिलन, ज्ञान-भक्ति, शौर्य-कायरता आदि की भावनाओं से रूबरू होता है। इनकी छायाएँ चारों ओर बिखरी  पड़ी रहती हैं जिनमें हर कोई खुद को खड़ा पाता है। परंतु इन सबसे गुजरते हुए आदमी में उत्तम या श्रेयस्कर जीवन की साधना और मूल्यों की ओर ऊपर उठाने की चाह पैदा भी पैदा होत्ती है। और वही राम-कथा का अभीष्ट भी है। चूँकि जीवन एक कथा के रूप में ही आकार लेता है इसलिए कथा या आख्यान में पिरो कर जीवन मूल्यों को जन-जन में प्रतिष्ठित करने की चेष्टा वाल्मीकि, तुलसी, कम्बन समेत अनेकानेक रचनाकारों द्वारा रची रामायण में की जाती रही । यह स्वाभाविक  और सबके लिए ग्राह्य भी है। आज की औपचारिक शिक्षा से दूर अनपढ़ ग्रामीण भी सदियों से राम-कथा से अनुप्राणित होते आ रहे हैं । मीडिया के वर्तमान रूप के बहुत पहले से राम-कथा की वाचिक परम्परा और राम-लीला का मंचन कथा-प्रसंग की अविरल लोकप्रियता का संकेत करते हैं।  मानवीय भागीदारी के कारण उसमें हमेशा कुछ नवीनता की भी गुंजाइश बनी रहती है। कथावाचक या रामलीला की मंडलियां अपने निजी वैशिष्ट्य का परिचय देते हैं । गोस्वामी तुलसीदास द्वारा शुरू हुई ये लीलाएँ काशी नगरी में  कई जगहों पर आयोजित होती है और कहीं का भरत मिलाप प्रसिद्ध है तो कहीं की नक कटैया तो कहीं का वन गमन और कहीं का केवट प्रसंग। राम कथा के व्यास(कथा वाचक आचार्य !) अपने-अपने ख़ास ढंग से कथा को रचते हुए कथामृत का पान कराते हैं। इतिहास न हो कर सर्जनात्मक हस्तक्षेप के अवसर वाली ये जीवंत कथा प्रस्तुतियां  देखते हुए यही कह सकते हैं ‘हरि अनंत हरि कथा अनन्ता ।  यह ठीक भी है आखिर भगवान भक्त के अधीन जो ठहरे।

राम कथा के पंडित अमूर्त स्तर पर ‘राम’ की व्याख्या  कुछ इस प्रकार हैं: प्रतीकार्थ में राम आत्मारूपी आंतरिक प्रकाश हैं। दशरथ और कौशल्या से राम का जन्म का अर्थ दस इंद्रियों की कुशलता से उस प्रकाशस्वरूप आत्मा की अनुभूति करना है। आत्म-ज्ञान से अहंकार और विषयासक्ति की समाप्ति होती है और राग-द्वेष से उपजती नकारात्मकता पर विजय  मिलती है जो जीवन की सबसे बड़ी चुनौतियाँ है। आत्म-ज्ञान वस्तुत: यथार्थ या सत्य के बोध को द्योतित करता है। अपने यहां सत्य को सबसे बड़े  मूल्य का दर्जा दिया गया उससे ऊपर कुछ भी नहीं है : न हि सत्यात् परो  धर्म: । सत्य से बड़ा कोई धर्म नहीं है। उसे सबसे बड़ा बल कहा गया है। वह सनातन धर्म है। सत्य की ही जय होती है।  महाभारत में सत्य को ही धर्म , तप और योग कहा गया है। सत्य ही सनातन ब्रह्म है। सत्य को ही परम यज्ञ  कहा गया है तथा सब कुछ सत्य पर ही टिका हुआ है।  श्रीराम रावण के रूप में विद्यमान असत्य को अपदस्थ कर सत्य की प्रतिष्ठा करते हैं। ऐसे श्रीराम की स्मृति को जीवित करती  अवधपुरी अयोध्या  सरयू नदी के तट पर स्थित है। इस नागरी की गणना मोक्षदायिनी सात नगरियों में की गई  है । मोक्ष का एक सीधा और सरल अर्थ है मोह का क्षय ।  जीवन मुक्त वह व्यक्ति होता है जो जीते जी इसे साध ले। इस तरह पवित्र प्रेरणा के लिए अयोध्या युगों-युगों से का आश्रय बना हुआ  है। तुलसीदास जी का  ‘रामचरितमानस ‘  अयोध्या  में ही रचा था । उन्होने  मानस में अयोध्या का मनोहर चित्र खींचा है। साधु संतों और धर्मप्राण जनता के लिये अयोध्या सदैव आकर्षित करती रही है। अयोध्या धाम का जीर्णोद्धार और भव्य मंदिर का निर्माण तृप्तिदायी अनुभव है। सभी प्राणी श्री राम से जुड़ कर आनन्द का अनुभव करते हैं। आम भारतवासी  आज भी  सुख -दुख, जन्म-मरण, हानि -लाभ ,  क़ायदा – कानून के प्रसंगों में राम का स्मरण करते नहीं थकती। अविराम चलती ठहरे या किसी तरह के विश्राम के सभी जीव जन्तुओं का अहर्निश  कल्याण करना ही रामत्व की चरितार्थता है। राम का अपना कुछ नहीं है , जो है वे उसका  अतिक्रमण करते हुए नई मर्यादा स्थापित करते हैं। उनको  हरतरह के लोभ, मोह, ममता , प्रीति , स्नेह को  कसौटी पर चढ़ाया जाता है और  वे खरे उतरते हैं।शायद राम होने का अर्थ नि:स्व होना है । राम से जुड़ कर मर्यादा , भक्ति, शक्ति, प्रेम, विरह, और अनुग्रह सभी भावों और अनुभवों से आदमी जुड़ता  है। राम का श्रेय जगत का कल्याण है। उनका पूरा चरित ही दूसरों के लिए समर्पित लोक-संग्रह का संघर्ष  है । पुरुषोत्तम राम की कथा शील, शक्ति और मर्यादा की संभावना को रेखांकित करती है । नीति-अनीति, न्याय-अन्याय, और धर्म-अधर्म के बीच उठाने वाले द्वंद्वों के बीच नैतिक मूल्य की प्रतिष्ठा सदैव एक चुनौती रही है। मानव रुप में ईश्वर की राममयी भूमिका का एकमात्र अभिप्राय लोक-हित का साधन करना है। इस पृथ्वी को अशुभ तत्वों से मुक्त कर कल्याणकारी जीवन की स्थापना ही श्रीराम की उपस्थिति का परम प्रयोजन है : प्रभु अवतरेहु हरनि महि भारा 

 

Share.