भगवान ने स्वयं बताई हैं सात मुख्य सिद्धियां

कार्तिक महीने के पहले ”याम” कीर्तन में श्रील कृष्ण दास कविराज गोस्वामी जी व श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी ने श्रीधाम वृन्दावन की जो मधुर लीला का वर्णन किया वो इस प्रकार है।

”याम” अर्थात दिन के पहले ”प्रहर” की लीला।
प्रथम याम के समय अर्थात निशांत कालीय लीला जो की रात के आखिरी चरण में प्रारम्भ होती है।
वृन्दावन में एक फूलों की सुन्दर शैय्या पर श्रीराधा-कृष्ण शयन कर रहे हैं। गोपियां दूर से उन्हें देख रही हैं। जब वृन्दा देवी जी देखती हैं  कि पौ फट रही है, तो सोचती हैं की श्रीराधा-कृष्ण को उठाना चाहिए। वे दो पक्षियों (शुक व शारी) को चहचहाने के लिए कहती हैं, जिसे सुनकर श्रीराधा-कृष्णजी की नींद खुल जाएं। गोलोक धाम के पक्षी भी भगवान के भक्त हैंं व उनका गुणगान करते रहते हैं। तोता जिसका नाम शुक है वो श्रीगोविन्द का गुणगान करता है, और तोती जिसका नाम शारी है वो श्रीमती राधाजी का। तोता-तोती के इस प्रकार के गुणगान से श्रीराधा-कृष्ण की नींद खुल जाती है।
प्रातः स्मरणीय श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी बताते हैं कि शुक भगवान की महिमा में कहता है की ”आमार कृष्ण मदन-मोहन”, मतलब की मेरे कृष्ण इतने सुन्दर हैं कि सुन्दरता के देवता काम-देव भी उनके रूप पर मोहित हो जाते हैं। इसके जवाब में शारी श्रीमती राधा जी का गुणगान करते हुए कहती हैं ठीक है कृष्ण मदनमोहन हैं, लेकिन वो इसलिए हैं क्योंकि उनके बाईं ओर मेरी राधा है, नहीं तो वे केवल मदन ही हैं। शुक फिर कहता है कि मेरे कृष्ण तो गिरिधारी हैं। इस पर शारी कहती है वो तो ठीक है परंतु गिरिराज को उठाने की शक्ति कहां से आई? वो तो आई मेरी राधा से।
श्रील कृष्ण दास कविराज जी बताते हैं की नींद खुल जाने पर भी भगवान ने आंखें नहीं खोलीं हैं क्योंकि वे अभी किसी और को भी सेवा देना चाहते हैं। उनको उठते न देख श्रीमती वृन्दा देवी चितिंत हो जाती हैं कि सुबह होने से पहले इनको उठाना ही होगा। श्रीराधा-गोविन्द जी को उनके निवास स्थान पर भेजना है। तब वहां की बंदरियां है जिसका नाम है कक्खटि। श्रीमती वृन्दा देवी जी उसे बोलतीं हैं की अब तुम बोलो।
कक्खटि बंदरियां की सेवा की इच्छा थी किंतु वृन्दा देवी अभी उसे इशारा नहीं कर रहीं थीं। भगवान तो सभी की सेवा लेते हैं, अतः जब तक कक्खटि ने श्रीमती वृन्दा देवी के कहने पर कोलाहल नहीं किया तब तक भगवान उठे नहीं।
वृन्दा देवी क कहने पर कक्खटि बंदरियां ने अपनी भाषा में भगवान राधा-कृष्ण का गुणगान शुरु कर दिया। आपको मालूम ही है कि बन्दरों की आवाज़ काफी तीखी होती है।  उसकी आवाज़ सुनकर भगवान और राधाजी उठे, एक दूसरे को देखा और अपने अपने निवास स्थान चले गए और जहां जाकर उन्होंने पुनः शयन लीला की।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी कार्तिक मास के प्रथम याम कीर्तन में लिखते हैं –
”एइ लीला स्मर आर, 
गाओ कृष्ण नाम, 
कृष्ण लीला प्रेम धन 
पाबे कृष्ण धाम। ”
क्योंकि श्रीकृष्ण कीर्तन के बिना राधा-कृष्ण जी की इन लीलायों का स्मरण असम्भव है।
श्रीकृष्ण कीर्तन के बिना परमार्थ राज्य में गाड़ी आगे नहीं बढ़ेगी। इसलिए प्रथम याम में श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के श्री शिक्षाष्टक के प्रथम श्लोक के कीर्तन- अनुकीर्तन का प्रावधान है।
श्रील गुरुमहाराजजी (श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी) इस लीला के वर्णन से पहले श्रीशिक्षाष्टक के पहले श्लोक का पाठ, अर्थ, व्याख्या, फिर इस श्लोक का भावानुवाद जो श्रीलकृष्ण दास कविराज जी ने लिखा उसका पाठ, फिर श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी ने इस पर जो भजन लिखा उसका कीर्तन करते हैं अथवा वैष्णवों से करवाते हैं।
श्रीशिक्षाष्टक का पहला श्लोक है –
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्निनिर्वापणं,
श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणंं विद्यावधूजीवनम्।
आनन्दाम्बुधिवर्धनंं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं,
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्णसंकीर्तनम्॥
भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी बताते हैं की जो यह श्रीकृष्ण संकीर्तन है वो हमारे जीवन की सारी इच्छाओं को पूरा कर सकता है। हर सिद्धि को दे सकता है।
यहां परम विजयते श्रीकृष्ण संकिर्तन का उपयोग किया गया है। ”श्री” का अर्थ होता है सौन्दर्य। अर्थात् श्रीकृष्ण का सौन्दर्य। और श्रीकृष्ण का सौन्दर्य हैं श्रीमती राधा रानी। अर्थात राधा-कृष्ण संकीर्तन।
जब कोई बरसाना जाता है तो वहां श्रीमती राधाजी के मंदिर को श्रीजी का मंदिर कहते हैं। तो श्रीचैतन्य महाप्रभु जी कहते हैं – परम विजयते राधा-कृष्ण संकीर्तनं।
अर्थात् हरे कृष्ण महामन्त्र का संकीर्तन। श्रीकृष्ण संकीर्तन इतना शक्तिशाली है की वो हर सिद्धि दे सकता है।
जीव चाहे बद से बदतर हो, उन्नत से उन्न्त हो, सभी को जिसकी जो भुमिका है, उसकी ज़रूरत को पूरा करता है यह श्रीकृष्ण संकीर्तन।
जगद्गुरु श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद जी ने इस श्लोक की व्याख्या में लिखा की यह हरे कृष्ण महामन्त्र सभी प्रकार की इच्छाओं को पूरा कर देता है। हालांकि श्रीचैतन्य महाप्रभु जी सात मुख्य सिद्धियों की बात करते हैं।
पहले, अनादि काल से जो हमारा चित्त रूपी दर्पण है, वो भगवान से विमुख रहने के कारण गंदी/बेकार की इच्छाओं से मलीन हो गया है। मान लीजिए एक शीशा है, व्यक्ति उसमें चेहरा देखना चाहता है। किंतु शीशे पर धूल होने के कारण दिखता ही नहीं है। चेहरा भी है, शीशा भी है, आंखें भी हैं, किंतु चेहरा तब तक नहीं दिखेगा जब तक धूल साफ नहीं होगी। इसी प्रकार जब चित्त रूपी दर्पण साफ होगा, हमें अपना असली स्वरूप दिखने लगेगा। फिर भगवान का स्वरूप दिखेगा और भगवान से हमारा क्या संबंध है, उसकी अनुभूति होगी। उसके बाद भगवद प्रेम का मार्ग खुल जाएगा। हम भगवान की प्रीति-पूर्वक सेवा की राह पर चलेंगे, संबंध ज्ञान के साथ।
फिर भगवान की जिस लीला की हमने पहले चर्चा की, कि वे कैसे उठते हैं, उसका हमें रसास्वादन होने लगेगा। आध्यात्म जगत, परमार्थिक जगत के भगवद् प्रेम राज्य की शुरुआत चित्त रूपी दर्पण के साफ होने से होती है और यह केवल मात्र श्रीकृष्ण संकीर्तन से ही हो सकता है और कोई तरीका नहीं है। जैसे घर या वस्त्र गंदा हो तो उसे साफ किया जाता है, उसी प्रकार चित्त गंदा होने से उसे साफ करना ही चाहिए और उसका उपाय भगवान स्वयं बता रहे हैं श्रीकृष्ण संकीर्तन।
श्रीचैतन्य महाप्रभु जी स्वयं यशोदनन्दन कृष्ण हैं जो की श्रीमती राधा जी का भाव व अंग कान्ति लेकर आए। गुरु रूप से उन्होंने हमें मार्ग दिखाया। वे बताते हैं की श्रीकृष्ण संकीर्तन करते रहने से दूसरा फायदा यह है की सांसारिक दावाग्नि, सांसारिक क्लेश सब चले जाएंगे, जन्म-मृत्यु का चक्कर खत्म हो जाएगा।
फिर ऐसी स्थिति अएगी, जब हमें अनुभव होगा कि मंगलमय भगवान की इच्छा से जो हो रहा है, अच्छा ही हो रहा है। भगवान मेरे लिए अच्छा ही कर रहे हैं। हम हर परिस्तिथि में भगवान की कृपा ही देखेंगे।
अगला फायदा- सभी ज्ञान हमारे अंदर प्राकाशित हो जाएंग़े क्योंकि सभी ज्ञानों के मूल में हैं श्रीकृष्ण।
फिर ऐसी स्थिति हो जाएगी कि हृदय में आनंद समुद्र की लहरें आती रहेंगी। अभी तो एक के बाद एक झमेला, किंतु तब आनन्द ही आनन्द।
जगद्गुरु परमपूज्यपाद श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद के शिष्य परमपूज्यपाद श्रील भक्ति कुमुद संत गोस्वामी महाराज जी कहा करते थे कि व्यक्ति के सिर का बोझ जब उसे थकाता है, तो उसे वह कंधे पर ले जाता है। तब उसे लगता है कि सिर को चैन मिल गई किंतु थोड़ी देर में कन्धा दर्द करता है। फिर उस बोझ को वह दूसरे कन्धे पर करता है, तब पहले कन्धे को चैन देता है। इस प्रकार पीठ पर और फिर वापिस सिर पर बोझ को ले जाता है।
अतः बोझ तो है चाहे जगह बदल दी गई है। यह तो तब तक रहेगा जब तक हम संसारिक भूमिका में रहेंगे, थोड़ा सुख आएगा लेकिन वो मेसेन्जर आफ दुःख ही होगा। सिर्फ श्रीकृष्ण संकीर्तन से ही यह ठीक होगा।
अखिल भारतीय श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के सौजन्य से
श्री भक्ति विचार विष्णु जी महाराज

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