आस्था पर चोट कब तक?
देश में अनेक राजनीति एवं गैर-राजनीतिक स्वार्थों से प्रेरित अराष्ट्रवादी एवं अराजक शक्तियां हैं जो अपने तथाकथित संकीर्ण एवं देश तोड़क बयानों से देश की एकता, शांति एवं अमन-चैन को छिनने के लिये तत्पर रहती है, ऐसी ही शक्तियों में शुमार बिहार के शिक्षामंत्री श्री चन्द्रशेखर एवं समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने हिन्दू धर्म की आस्था को आहत करने वाले बयान दिये हैं, संत शिरोमणी तुलसीदास रचित रामचरितमानस की कुछ पंक्तियों को लेकर उन्होंने तथ्यहीन, घटिया, सिद्धान्तहीन एवं हास्यास्पद टिप्पणी करके धर्म-विशेष की आस्था को आहत करते हुए विवाद को जन्म दिया है। हालांकि सपा ने मौर्य की इस टिप्पणी से खुद को यह कहते हुए अलग कर लिया है कि यह उनकी व्यक्तिगत टिप्पणी थी। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि देश के प्रमुख राजनेता ने सच्चाई को जानते हुए जानबूझकर भड़काऊ एवं उन्मादी बयानों से देश की मिली-जुली संस्कृति को झुलसाने का काम किया है। मौर्य के ऐसे हिंसक एवं उन्मादी विचारों को क्या हिन्दू हाथ पर हाथ धरे देखते रहेंगे? क्यों ऐसे बयानों से देश की एकता एवं सर्वधर्म संस्कृति को तोड़ने की कुचेष्ठाएं की जाती है। रामचरितमानस को पिछले करीब पांच सौ वर्षों में सम्पूर्ण भारत के करोड़ों लोग जिस श्रद्धा और प्रेम से पाठ करते रहे हैं, वह इसका दर्जा बहुत ऊंचा कर देता है। अब इस तरह इस अमर कृति का अनादर एवं बेवजह का विवाद खड़ा करना समझ से परे हैं।
आखिर बहुसंख्य हिन्दू समाज कब तक सहिष्णु बन ऐसे हमलों को सहता रहेगा? कब तक ‘सर्वधर्म समभाव’ के नाम पर बहुसंख्य समाज ऐसे अपमान के घूंट पीता रहेगा? राजनीतिक दलों में एक वर्ग-विशेष के प्रति बढ़ते धार्मिक उन्माद पर तुरन्त नियन्त्रण किये जाने की जरूरत है क्योंकि अभी यदि इसे नियंत्रित नहीं किया गया तो उसके भयंकर परिणाम हो सकते हैं जिनसे राष्ट्रीय एकता को ही गंभीर खतरा पैदा हो सकता है। रामचरितमानस हिन्दू धर्म के अनुयायियों का सर्वोच्च आस्था ग्रंथ है। करोड़ों लोग इस ग्रंथ का हर दिन स्वाध्याय करते हैं। मौर्य ने इस ग्रंथ को लेकर सरकार से दुर्भाग्यपूर्ण एवं हास्यास्पद यह मांग कर दी है कि इस रचना में से कुछ पंक्तियों को हटा दिया जाए या फिर यह पूरी रचना को ही पाबंद कर दिया जाये। यह मांग बताती है कि कोई बहस विवेक के धागे से बंधी न रहे तो वह किस हास्यास्पद स्थिति तक पहुंच सकती है। भले ही यह विवाद बिहार के शिक्षा मंत्री और आरजेडी नेता चंद्रशेखर के इस बयान से शुरु हुआ कि रामचरितमानस के कुछ दोहे समाज के कुछ खास तबकों के खिलाफ हैं। देखा जाए तो रामचरितमानस के कई दोहों पर बहस बहुत पहले से चली आ रही है। उनमें से कुछ को दलित विरोधी बताया जाता है तो कुछ को स्त्री विरोधी। इसके पक्ष-विपक्ष में लंबी-चौड़ी दलीलें दी जाती रही हैं। लेकिन सैकड़ों वर्षों से घर-घर में मन्दिर की भांति पूजनीय यह कोरा ग्रंथ नहीं है बल्कि एक सम्पूर्ण जीवनशैली है। संस्कारों एवं मूल्यों की पाठशाला है। रामचरितमानस में भले रामकथा हो, किन्तु कवि का मूल उद्देश्य श्रीराम के चरित्र के माध्यम से नैतिकता एवं सदाचार की शिक्षा देना रहा है। रामचरितमानस भारतीय संस्कृति का वाहक महाकाव्य ही नहीं अपितु विश्वजनीन आचारशास्त्र का बोधक महान् ग्रन्थ भी है। यह मानव धर्म के सिद्धान्तों के प्रयोगात्मक पक्ष का आदर्श रूप प्रस्तुत करने वाला ग्रन्थ है।